बस जरूरत का रह गया सामान आदमी

बस जरूरत का रह गया सामान आदमी



लाखों की भीड़ में तनहा है आदमी रिश्ते नाते हुए अब नाम के सब एक ही छत के नीचे फिर भी अकेला है आदमी ! अंदर से है टूटा टूटा बाहर से है तना आदमी ! दौलत का चांद है शोहरत है चांदनी फिर भी चारों तरफ सन्नाटा अंधेरे में है आदमी !
आंसू है होठों पर मुस्कुराहट अंदर से पस्त पर बाहर से मस्त है दिखता है आदमी ! सबके लिए जो उसने किया वह उसका फर्ज था उसके लिए जिसने किया उसके लिए वह कर्ज था इसी कशमकश में जीता मरता है आदमी !
दुनिया की दिवाली देखकर उसका जलता है चंद खुशियां पाने के लिए उसका भी जी मचलता है पर इस मतलबी दुनिया से डरता है आदमी !
जब तक दिल में जान है हाथ में पैसा है तब तक पूछता है हर कोई उसको बाद में तो कूड़ेदान है आदमी ! प्रेम सम्मान और सम्मान का अब जमाना नहीं बस जरूरतों का रह गया सामान आदमी !
संध्या सिंह महानगर लखनऊ

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