आज मेरे परमपूज्य गुरुदेव परमहंस
योगानंद जी का जन्मदिवस हैं।
उनके कमल चरणों पर हम सभीका
बारंबार नमन और उनका आशीर्वाद
हम सभी पर सदैव बना रहे।
उनका जन्म 5 जनवरी 1893 में गोरखपुर में हुआ था । उनके बचपन का नाम बालमुकुंद था। बचपन से ही उनकी रुचि एकमात्र ईश्वर की खोज थी। उनका अधिकतर समय निर्जन शमशान में बैठकर ईश्वर की खोज में व्यतीत होता था। उनकी पढ़ाई में रुचि नहीं थी, परंतु परिवारिक दबाव के कारण उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की ।इसके बाद वे गुरु की खोज में निकल पड़े। दर-दर भटकने बाद आखिर उन्हें गुरु मिल ही गये। उनके गुरुदेव श्री युक्तेश्वरजी का निवास स्थान गुरुदेव के घर से लगभग 15 किलोमीटर दूर श्रीरामपुर में ही था। अब गुरुदेव का अधिकतर समय श्री युक्तेश्वरजी के सानिध्य में बीतने लगा। श्री युक्तेश्वरजी ने उनसे कहा ---बालमुकुंद, तुम्हें विदेश जाना पड़ेगा, जब तक तुम्हारे पास स्नातक (B A) के डिग्री नहीं होगी, तब तक वहां के लोग तुम्हें महत्व नहीं देंगे। गुरुदेव के कहने पर उन्होंने डिग्री कॉलेज में प्रवेश ले लिया। अधिकतर समय आश्रम के कामों में व्यस्त रहने के बाद भी उन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
समय आने पर श्रीयक्तेश्वरजी ने गेरवें वस्त्र देकर उनका सन्यास आश्रम में प्रवेश कराया और उन्हें योगानंद का नया नाम दिया। सन्यासी बनने के बाद श्री योगानंद जी ने बंगाल के डीह नामक स्थान पर ब्रह्मचर्य विद्यालय की स्थापना की। बाढ़ के कारण उनका विद्यालय बह गया, इसके बाद उन्होंने रांची में ब्रह्मचर्य विद्यालय की स्थापना की और यह विद्यालय दिन-प्रतिदिन फलने फूलने लगा।
गुरुदेव के जीवन के दो ही लक्ष्य थे ---ब्रह्मचर्य विद्यालय के स्थापना और श्री लहरी महाशयजी की शिक्षाओं के प्रचार। गुरु जी का मत था कि बच्चे बाग के पौधों की तरह होते हैं, यदि माली अच्छा होगा तो पौधों को काट छांट कर, समय पर खाद पानी देकर उन पौधों को एक सुंदर वृक्ष के रूप में परिवर्तित कर सकता है, परंतु यदि माली अच्छा नहीं है तो पौधें टेढ़े मेढ़े, छोटे बड़े, ऊंचे नीचे कैसे भी बन जाएंगे।
सन 1920 में गुरुदेव को विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका जाना पड़ा। वह मात्र 3 महीने के लिए अमेरिका गए थे, परंतु विधि के विधान के अनुसार उनका सारा जीवन ही अमेरिका में व्यतीत हो गया। अमेरिका में रहते हुए उन्होंने तीन बड़े आश्रमों को स्थापित किया।
सन 1935 में गुरुदेव भारत आए जहां वे भारत के अनेक बड़े-बड़े संत महात्माओं से मिले और उनका प्रेम प्रप्त किया। एक वर्ष बाद ही उन्हें अमेरिका लौटना पड़ा।
सन 1942 में विश्व युद्ध शुरू हो गया। गुरुदेव कहा करते थे कि देश भक्ति, ईश्वर भक्ति से भी ऊपर हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है...यदि अमेरिका को आज मेरी जरूरत है तो मैं, अभी सब कुछ छोड़कर शत्रु से लड़ने के लिए बॉर्डर पर चला जाऊंगा। ऐसे युगपुरुष और देश प्रेमी को हम सभी का बारंबार नमन।
सदैव ईश्वर प्रेम में लीन रहते हुए, अमेरिका में उन्होंने अनेकों पुस्तकें लिखी जो दिव्यप्रेम व ब्रह्मांडकी उत्पत्ति के ज्ञान से भरपूर है। उनकी शिक्षाएं पूर्णतया विज्ञानिक और तर्क संगत है। उनकी शिक्षाओं में प्रकृति का अनमोल खजाना छुपा हुआ हैं जिनका ज्ञान संभवत भारत के बड़े-बड़े ऋषियों को भी नहीं था।
तत्पश्चात सन 1952 में, वे माहा समाधी लेकर ईश्वर के साथ पुनः एकाकार हो गए। भारत सरकार ने उनके सम्मान में दो बार डाक टिकट जारी की हैं। ऐसे युगमहापुरुष, ऐसे महायोगी के कमल चरणों में हम सभीका बारंबार नमन। "मोती लाल गुप्त "
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